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पिण्डदान / श्रीविलास सिंह

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वे दिन भर
घुटनों भर कीचड़ में घुसी
धान रोपती हैं
गीत गाते हुए।
आग बरसाती धूप में
काटती है गेहूं की स्वर्णिम फ़सल।
खटती है गन्ने के खेतों में,
करती है हाड़तोड़ मेहनत
ईंट के भट्टों पर,
दो दो मील दूर से ढोती हैं
तुम्हारी प्यास का बोझ मटकों में।
वे रोज बिला नागा
चूल्हे में जलती हैं
और पकाती हैं भोजन
तुम्हारे पूरे परिवार के लिए
जिसमे उनके हिस्से आता है अक्सर
बचाखुचा खाना,
कभी बिना दाल, कभी बिना सब्जी के।
कभी वे भूखे भी सो जाती हैं
बिना किसी को बताए।
सहती रहती है सारे सुख दुःख
कुएँ की जगत के पत्थर की तरह।
वे तुम्हारी लम्पट निगाहों से
बचाती खुद को,
बचाये रखती है
गांव भर की इज्जत,
और उन्हें ही देनी पड़ती है
अग्निपरीक्षा भी।
गिद्धों की तरह तुम्हारे
उनके गर्भाशय नोच लेने के बावजूद ,
वे जनती हैं
तुम्हारे लिए बच्चे भी
ताकि बचा रहे तुम्हारा वंश
और तुम मर न जाओ एक दिन
बिना पिंडदान के ही।