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रात / श्रीविलास सिंह

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सांझ की स्वर्णिम
घाटी से निकलती है
रात की नदी।
दिन के खण्डहरों के
किनारों पर लहराती हैं
रोशनी की झंडियाँ।
आकाश के
टिमटिमाते टुकड़ों के बीच से
बेआवाज बहती है
नदी रात की।
नींद के मैदानों से
सपनों की नावें
सन्नाटे के बादलों को
चुपचाप सहलाती
धीरे से गुज़र जाती हैं
जुगनुओं की
चमकती सरगोशियों के साथ।
अंधेरे का धुआं
और गाढ़ा हो कर मिल गया है
लहरों की सियाही में,
कोई कविता लिख रहीं हैं
दो युवा धड़कने
दूर नीली शाल ओढ़े खड़े
गुलमोहर के नीचे।
चाँद झड़ रहा है
सुनहली धूल की तरह
मंदिरों के दालानों और
मस्जिदों के गुम्बद पर।
इनका बाशिंदा भी शायद
सोया है मीठी नींद में।
दूर कहीं कुत्ते भौंकते है
ताकि सनद रहे
जिंदा है रात।
कोई फ़क़ीर आलाप ले रहा है
"तेरे इश्क़ नचाया"
रात की नदी
डूब जाने को है
धूप के समंदर में
अपनी गोंद में लिए
सारी अधूरी
प्रेम कहानियाँ।
दूर पूरब में चमकने लगी है
रक्त की लालिमा।