Last modified on 4 फ़रवरी 2021, at 01:01

युयुत्सु / श्रीविलास सिंह

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:01, 4 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीविलास सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सड़क दूर तक सूनी है
नुचे हुए हैं रोशनी के पंख
घरों की आंखों में धुंए की कड़वाहट
अब भी किसी ज़ख्म सी
टीस रही है
सन्नाटे की सुरंग मे
अब तक धड़ धड़ बज रहा है
मौत का कोलाहल
सीने की गहराइयों तक।
अभी अभी तो गुजरा है
आतंक का लश्कर
इसी रस्ते
धर्म के रथों पर सवार
घृणा की तलवारें लहराता।

अपनी हथेली पर
अधजले बच्चों की लाशें संभाले
मेरे शहर की
रक्तरंजित अभागी धरती स्तब्ध है पर
उसकी कराहटें
अब भी सुनी जा सकती हैं
समय की दहलीज़ पर।

इस श्मसान की निस्तब्धता में
कई बूढ़े चैन से बैठे हैं
अपने अपने स्वर्ग की प्रतीक्षा में
मृतकों की स्त्रियों और बच्चों के
आर्तनाद से बेखबर
राजा के साथ हैं
राजधर्म की नपुंसक चर्चा में निमग्न।

धर्मक्षेत्र में समान रूप से युयुत्सु
मूर्खों की भीड़
जानती नहीं कि
कोई भी जीते पर
हस्तिनापुर का सिंहासन तो
सुरक्षित है
शांतनु के वंशजों के लिए
और उनका प्राप्य तो है बस
पीड़ा और मृत्यु।

अभी जब तक सूखा भी नहीं होगा
भूमि पर गिरा हमारा रक्त
और मारे गए लोगों की लाशें भी
ठंडी नहीं हुई होंगी,
वे अपने राजदरबारों में
एक नई द्यूत क्रीड़ा की
तैयारी कर रहे होंगे।

सड़क अब भी सूनी है दूर तक
रोशनी अब भी फडफडा रही है
अपने टूटे हुए पंख
पर आने लगी हैं नेपथ्य से
उनके निर्लज्ज कहकहों की आवाज़ें
बिना किसी पछतावे के।