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मधुश्रावणी / आभा झा

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मधुश्रावणीक अनुपम अवसरि
उल्लसित सकल नव परिणीता,
सोलह श्रृंगारक छटा मध्य
उछिलल अभिसारक आतुरता।

धरणी-अंबरक समदिया बनि
छै झहरि रहल झर-झर बदरा,
जल आप्लावित चर-चाँचर के
वर फाँनि करय सासुर जतरा।

पाबनिक पूर्व संध्या लुकझुक
छथि पहुँचि गेल पाहुन पुलकित,
मृगलोचनि छमकि रहलि पहुँ लखि
अनिमेष निरेखथि उत्कंठित।

अरूणोदय केर लालीक संग
जागलि वनिताक वृंद सत्वर,
झट पट सम्हारि गृहकार्य अपन
चललीह मुदित पबनैतिन घर।

अरिपन-पुरहर, फल-फूल-मधुर
गम-ग़म करैछ सगरो अंगना
उठि गेल गोसाओनिक गीत पहिल
सजनीक पार्श्व बैसथु सजना।

परिहास-हास सरवरक बीच
शोभित जनु शतदल पर द्विरेफ,
मानिनी मुग्ध मन मौन मुदा
चुगली करैछ मुसकीक रेख।

नयनाभिराम मधुमय वेला
मिथिलाक संस्कृतिक अतुल विभा,
समवेद स्वरक शुभ-शुभ सुनिकय
अतिशय आह्लादित अछि आभा।