Last modified on 6 फ़रवरी 2021, at 00:40

कौवे / राजेश कमल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:40, 6 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश कमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कबूतरों का इलाक़ा था कभी
सफ़ेद कबूतरों का
कौवे भी यदा कदा दिख जाते
कभी चील भी
कभी बाज़ भी
कभी रंग बिरंगी चिड़ियाँ
लालक़िला हो या राजपथ
यही नज़ारा
पर इन दिनों
बदल गये हैं नज़ारे
जिधर देखो कौवे ही कौवे
हर शाख़ पर कौवे
हर बाम पर कौवे
हर नाम में कौवे
हर काम में कौवे
कबूतर बिलकुल नदारत
जैसे ही मुल्क में कौवों की तदात बढी
हर जगह गूँजने लगा
काँव-काँव
जब तहक़ीक़ात की तो पाया
इनमें कुछ नक़लची हैं
जैसे तोते
कुछ बेचारे हैं
जिन्होंने बहुसंख्यकों के दबाव में भाषा बदल ली
और कुछ अकलची
जो हवा का रूख देखकर मुँह खोलते
हद तो तब हो गयी
जब इस बार गया गाँव
भागा उलटे पाँव
वहाँ
कोयल भी कर रही थी
काँव-काँव