Last modified on 27 फ़रवरी 2021, at 17:47

बीत गए लो तुम भी वैसे / सरोज मिश्र

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:47, 27 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बीत गए लो तुम भी वैसे,
जैसे बीता पिछला साल!

धरती के दिन हुये न धानी
नभ की काली रात न बदली!
आग अभी तक है जंगल में
हिम की पत्थर आँख न पिघली!
आंखों के सपने आंखों में,
अधरों से मुस्कानें रुठीं,
सूनी मांग लिये उम्मीदें,
इच्छाओं की चूड़ी टूटी!

बगुलों का तीर्थ लगता है
बस्ती का हर उथला ताल!
बीत गए लो तुम भी वैसे,
जैसे बीता पिछला साल!

राग सदा ही वे गाये जो,
समय पुरुष को मोहित कर लें!
किसी सुबह फिर बिछड़ी खुशियाँ,
मुस्कायें बाहों में भर लें!
हमने जिसके आराधन को
सुन्दर से सुन्दर शब्द चुने!
उस मूरत ने गीत हमारे
सुनकर भी कर दिए अनसुने!

कहीं प्रतीक्षित हीरामन ये
तोड़ न दे पिंजरे का जाल!
बीत गए लो तुम भी वैसे,
जैसे बीता पिछला साल!

दुःख पीड़ा आंसू के मैनें
पहले कुछ गहने बनवाये!
फिर सिंगार किया कविता का,
धुले हुए कपड़े पहनाये!
अनब्याही पर रही आज तक,
कोई राजकुँवर न आया,
इसे प्रसाधन कृतिम न भाये,
उनको मौलिक रूप न भाया!

देख विवश मुझको हँस देती,
करे न कविता एक सवाल!
बीत गए लो तुम भी वैसे,
जैसे बीता पिछला साल!