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कहाँ / अजित कुमार

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दिल्ली एक नगर था
कुछ का नरक
किन्हीं का स्वर्ग
खोजने आए थे हम इसमें अपनी दुनिया ।
धक-धक तोंय तोंय धक
धुनिया बजा रहा था अपना इकतारा
खन खन खन
बनिया
गिने जा रहा था, क्या हुई कमाई
पिछली शाम
खड़ी थी एक क़तार
दर्ज करने को
रोज़गार के दफ़्तर की किताब में
अपना नाम ।

धुआँ था ।
तीन प्रेमिकाओं से मिलने
उनके ज़रिए खुद को छलने जाना था
लेकिन
बस को तो पूरी शाम
न आना था :
वह आई नहीं ।

और हम करते रहे प्रतीक्षा
चौथी किसी प्रेमिका की,
वह आई ।

सन्नाटा था ।

बोली—‘ओरे ओ पाँचवे सवार ।
मुझे भी साथ लिए चल
साथ लिए चल
लिए चल दिल्ली ।

मैं
जो अब केवल फीकी हँसी
और वह भी
बस कभी-कभी
हँसता हूँ,
मुस्काया—‘किसका साथ ।
कौन है तेरा ।
इस उजड़ी सराय में
रुक जा ।
मैं तो चला ।‘

कोहरा भी था ।
विस्तृत राज पथों पर
बिखरा था संगीत जाज़ का और
मुग्ध आश्वासन—‘ओ के । सी यू
लेsटर ।‘
उधर दम तोड़ रहा था खजरा भूखा कुत्ता ।

उससे उदासीन, अपने से ऊबे हुए
कलाकारों की एक जमात
खड़ी थी करने अपना घात…
बड़े से चौराहे के बीचोबीच
सुस्त
मटमैली हल्की-सी
रोशनी ।
वहाँ पातालपुरी में
राम राम
जय राम
सियापति राम
नाम की धुन में रमा हुआ था
गिन्सबर्ग नाम का एक भजनिया ।

कहाँ है मेरी दुनिया ।