Last modified on 18 मार्च 2021, at 19:57

जामुनी सुबह / मोहन अम्बर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:57, 18 मार्च 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन अम्बर |अनुवादक= |संग्रह=सुनो!...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हो गई सुबह जामुनी आज।
कान्हा रवि की पिचकारी से, राधा-सी धरती भींज गई,
पश्चिम वाले नभ में बैठी रजनी सौतिन-सी खीज गई,
बुल-बुल बोली गा री! कोयल
मौसम लगता फागुनी आज,
हो गई सुबह जामुनी आज।
तू किरण ग़ज़ब की रँगरेजिन, रँग दिये नखूनी सरि, सोते,
काले पर्वत कत्थई रँगे, मूंगिया रँगे हरियल तोते,
पर हद कर दी परिहासों की,
रँग दिये रूप रातुनी आज,
हो गई सुबह जामुनी आज।
अमरूद पके-से बसन पहिन, बालक-सा मगन हुआ बादल,
उपवन में काना-फूसी है, हो गई हवा शायद पागल,
पनघट जाती मगना बोली,
होती पग में बाजुनी आज,
हो गई सुबह जामुनी आज।
ये गगन खेत, तारे कपास, चुन रही मजूरिन उजियारी,
रखवारा चंदा ऊंघ रहा, कर चुका रात भर रखवारी,
तम-जमींदार अफसोसी है,
यह रौब क्षणिक पाहुनी आज,
हो गई सुबह जामुनी आज।