अकास देखथें पथरैलोॅ आँख,
मतुर हाय,
एक बून्द पानी भी
नै टपकलै।
खेतोॅ केॅ ज़मीन फटी गेलै,
धरती माय कानी पड़लै।
सुरजोॅ केॅ तेजोॅ में
तपलै जे धरती,
खेतोॅ केॅ हरियाली खोय गेलै।
सब्भे जीव-जन्तु रो
जिनगी में देखी अंधार
त्राहिमाम, त्राहिमाम, कानै छै।
वहाँ के खड़ा छै हो?
आदमिये छिकै?
है तेॅ किसाने छिकै,
जेना केॅ देहोॅ केॅ पूरा माँस ही
पेटेॅ पचाय गेलै।
कानी रहलोॅ छै किसान,
मूरो तेॅ नै पैलां,
साल भरी पेट केना क भरतै!
बेटी रो बियाह
रचावै केॅ मोॅन छेलै,
मतुर कहीं यम्मों केॅ दूते
नै आबी जाय।
आस कुछ्छू छै अभियोॅ,
साँस कुछु छै बाकी,
भगवाने जिनगी देलै छै
तेॅ खाय लेॅ भी देतै,
पंडित जी बोलै छै
जनता केॅ राज छेकै,
शायद सरकारें,
मदद कुछ्छू करतै!