Last modified on 2 अप्रैल 2021, at 00:06

जीवनानुभूति / मोहन अम्बर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:06, 2 अप्रैल 2021 का अवतरण ('ifjp;{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन अम्बर |अनुवादक= |संग्रह=आस-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ifjp;

जीवन-बांसुरिया गूँजी सरगम से भाषा निकली
तेरा आंगन प्यासा है तू बन जा पावस बदली।
पवन किए था निठुराई सूरज किरण जलाती थी
खेतों की काली मिट्टी पीली होती जाती थी

वह ख़ुद प्यासी थी लेकिन इतना प्यार निभाती थी
उगते नन्हें पौधों को अपनी उम्र पिलाती थी
उस अनुभव के कारण ही मन मचला अब गाऊँगा
मिट्टी की इस ममता को घर-घर तक पहुँचाऊँगा

इतने में कुछ सुन पाया वह भी अधरों पर आया
जामुन पर बोली कोयल वाणी में मीठी पतली
छेड़ बटोही ऐसा स्वर ऋतु बरसे मचली-मचली
तेरा आंगन प्यासा है तू बन जा पावस बदली

और चला जब आगे तो बगिया में थे फूल नहीं
फूलों की क्या बात करूँ पत्ते भी थे कहीं-कहीं
लेकिन सूखे तरूओं पर बैठे थे कुछ बया-बयी
धीरज की इस सीमा पर मेरी आँखें लजा गयीं

उस अनुभव के कारण ही मन मचला अब गाऊँगा
पंछी की इस प्रभुता को घर-घर तक पहुँचाऊँगा
इतने में कुछ सुन पाया वह भी अधरों पर आया
कटहल पर रोई बुलबुल पीड़ा से पिघली-पिघली

मीत बटोही लौटा लो जो मधु-ऋतु मुँह मोड़ चली
तेरा आँगन प्यासा है तू बन जा पावस बदली
दिशा-दिशा तब डोला मन बिन पावस के बादल-सी
लेकिन सागर मस्ती से बोले तू है पागल सा

कोई हँसता पायल-सा कोई रोता घायल सा
इस अनुभव के कारण ही मन मचला अब गाऊँगा
सागर की इस कटुता को घर-घर पहुँचाऊँगा
इतने में कुछ सुन पाया वह भी अधरों पर आया

पानी के ऊपर आकर बोली तुतली-सी मछली
सुघड़ बटोही भर गागर लहरें हैं उथली-उथली
तेरा आँगन प्यासा है तू बन जा पावस बदली