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पूछता हूँ ओ सर्जन के पहरूओ उत्तर मुझे दो
लोग जिसकी ईंट खींचे जा रहे हैं,
उस गिरे घर के लिए तुमने किया क्या?
रोज पढ़ता दैनिकों में मिल रहे आसन कला को
किन्तु होता ही नहीं सन्तोष इस मन बावला को
टालता हर बार मैं
पर प्रश्न यह करता दुबारा
जो दिए की रोशनी में लिख रहे हैं
उस कलमधर के लिए तुमने किया क्या?
पूछता हूँ ओ सर्जन के पहरूओ उत्तर मुझे दो।
जानता हूँ है नहीं अवकाश यह निर्माण के क्षण
पर ग़लत तो है भुलाते हो स्वयं के प्राण के प्रण
बाँध-बाँधे भट्टियाँ इस्पात की खोली हजारों
पर बचाने गाँव जो ख़ुद बह गये हैं
उन बहादुरों के लिए तुमने किया क्या?
पूछता हूँ ओ सर्जन के पहरूओ उत्तर मुझे दो।
सुन चुका हूँ छा रहे हो शान्ति के संसार पर तुम
पर कभी क्या घूमकर भी देखते हो यार घर तुम
लचकते हैं आदमी पर टूटते फिर भी नहीं हैं
औ समय का दर्द लादे झुक रहे हैं
उनके सफ़र भर के लिए तुमने किया क्या?
पूछता हूँ ओ सर्जन के पहरूओ उत्तर मुझे दो।
लोग जिसकी ईट खींचे जा रहे हैं,
उस गिरे घर के लिए तुमने किया क्या?