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संयोग / मोहन अम्बर

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जब सावन का संयोग, प्राण की प्यास नहीं पी पाये,
तो क्या मतलब रखता है, जो तुम गाते सावन आये।
जहाँ बादलों की गरजन वे-बरसे दर्द बढ़ाती,
वहाँ बिलखती विरहिन की आँखें ही अर्घ्य चढ़ाती।
इसीलिए मैं आज बिलखते गीतों से कहता हूँ।
यदि पीड़ा की भी चीख मेघ को प्रीति नहीं समझाये,
तो क्या मतलब रखता है, जो तुम गाते पीड़ा आये।
जहाँ कली की भरी जवानी गंध नहीं फैलाती,
उस उपवन पर भ्रमर टोलियाँ रोेज बुराई गाती।
इसीलिए मैं आज उभरते गीतों से कहता हूँ।
यदि यौवन का उन्माद सलोनी याद नहीं बन पाये,
तो क्या मतलब रखता है जो तुम गाते यौवन आये।
मुझे रात की बात याद जब रोज़ सुबह आ जाती,
मेरी सूरत मेरे ही कंगलेपन पर पछताती।
इसीलिए मैं आज सजग इन गीतों से कहता हूँ।
यदि सपनों की सौगात प्रातः में सत्य नहीं बन पाये,
तो क्या मतलब रखता है जो तुम गाते सपने आये।