आया सीमान्त प्रहर
रात ढली
ढल चली
मन्दिर में दूर कहीं
घंटियाँ निनादित हो
मौन हुई
साधक की स्वरलहरी
ऊर्ध्वमुख तैर चली।
धुँधली द्रुम डाली पर
विहग एक कुहुका
कुछ पल का अंतराल
दूसरे तीसरे अनेक विहग
कुहके चहके किलके
सहसा विगलित नीरव
सर सर सर
पंखों पर कलरव भर
वन-प्रान्तर जाग उठा
ऊषा आगत
स्वागत आगत ऊषा
स्वागत अनुराग
अरूण प्रात।
खिला-खिला विहँसा नभ प्राची का
आँचल से झाँक उठा
मोती सा
दिनमणि गुलाब आभ।
मलय गन्धभार मन्द
जड़-चेतन तिमिर मुक्त
खुले बन्द द्वार
प्रकृति मुग्ध, रूप निज निहार
अँगड़ाई, शरमाई, अंग-अंग
भरा इन्द्रधनुष
जगती चैतन्य ज्योति स्नात
सुप्रभात।