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अकेला / रामकृपाल गुप्ता

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पतझर की संध्या सूनापन नंगे तरु बेचारे
चिर परिचित पथ साथ न कोई केवल चाँद-सितारे।
भाग रही धरती जाने पश्चिम में अरुणाई।
गगनां गण में फैल रही है धवल-धवल तरुणाई।
मृदु पलकों के चित्र पटल पर जगमग जगत सजाने
एक-एक जन जाता होगा अपनी सेज सजाने।
किन्तु हमारा नीड़ कहाँ है सोच रहा मन मारे।
चिर परिचित पथ साथ न कोई केवल चाँद-सितारे।
हे शशि तेरी क्रूर हँसी में कितनी हैअवहेला
तेरे जीवन में भी आयी साथी ऐसी बेला।
हे अम्बर के झिलमिल तारों नन्हीं आह तुम्हारी।
उलझन बनकर आयी पथ में ऊँची एक पहाड़ी
पथ भी उलझन बन जाता है गिरि के एक किनारे।
चिर परिचित पथ साथ न कोई केवल चाँद-सितारे।