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अनुबन्ध / कविता भट्ट

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मानव के वश में होता तो प्रकृति पर भी होते प्रतिबन्ध
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध

घटा न मचलती और न घुमड़ती
चंचल हवा चूम आँचल न उड़ती
भँवरे कली से नहीं यों बहकते
तितली मचलती न पंछी चहकते
किससे, कब, कैसे हाथ मिलाना? व्यापारों से होते सम्बन्ध
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध

झरने न बहते, नदियों पर पहरे सीपी,
न मोती सागर होते गहरे चाँदनी मुस्कुराती
न तारे निकलते बिन शर्त सूरज-चाँद उगते न ढलते
मुखौटे पहने ये रंगीन चेहरे, नकली फूलों में कैसी सुगन्ध
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके भी होते अनुबन्ध

उन्मुक्त बहना है प्रफुल्ल रहना
जीवन की शर्त है जीवन्त रहना
हृदय की ध्वनि को यों न दबाएँ
 बिन स्वार्थ कुछ क्षण संग बिताएँ
सहजीवी बनें बस प्रेम बाँटे, झूठे व्यापारों में कैसा आनन्द
कौन लता किस पेड़ से लिपटे, इसके तो ना करो अनुबन्ध