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ख़ुशियों का डाकिया / राधेश्याम बन्धु

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ओ बयार मधुऋतु वाली
 झुग्गी में भी आना,
     शहर गए भैया बसन्त
          की चिठठी भी लाना

      महानगर मे हवा बसन्ती
 भी आ बहक गई,
 कैक्टस की बेरुखी देख
 बेला भी सहम गई,
     मुरझाए छोटू कनेर की
            प्यास बुझा जाना ।
 
       गांवों की फुलमतिया
 कोठी की सेवा करती,
 सुरसतिया भी अब किताब
 तज पोंछा है करती,
     मुनिया की बचपन बगिया भी
          आकर महकाना ।

       खड़ा मजूरी की लाइन में
 यौवन अकुलाता,
 ख़ुशियों का डाकिया नहीं क्यों
 होरी घर आता?
      दादी के टूटे चश्मे का
             ख़त भी पहुँचाना ।

 ओ बयार मधुऋतु वाली
       झुग्गी में भी आना ।