प्रतिस्पर्धात्मक आधुनिक युग में प्रायः यह देखा जा रहा है कि साहित्य, लेखन एवं प्रकाशन में भी राजनीति के समान दाँव-पेंच अपनाये जाते हैं; इससे अधिक नकारात्मक कुछ भी नहीं हो सकता । इन नकारात्मक पक्षों के मुख्य कारणों एवं परिणामों का उल्लेख मैं नहीं करना चाहती; क्योंकि अधिकांशतः सभी उन तथ्यों से परिचित हैं । यहाँ मात्र उन तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है जिनके द्वारा रचनाकर्म समाज को यथोचित दिशा प्रदान कर सके. रचनाकार एक तटस्थ द्रष्टा के समान विषयों को निर्लिप्त भाव से देखे एवं उन पर अपनी लेखनी चलाये; उसमें उसे अपनी सफलता, यश, आर्थिक लाभ एवं अन्यान्य परिणामों का भान ना रहे; यदि लेखन तपस्या के समान हो तभी इसको वस्तुतः लेखन कहा जा सकता है; अन्य स्थितियों में यह मात्र व्यापार ही रहेगा।
लेखन एक ऐच्छिक कर्म है; इसमें मन, बुद्धि एवं अहंकार अर्थात् अंतःकरण की संलग्नता एवं सक्रियता होती है, किन्तु यह सकारात्मक एवं तटस्थ होना चाहिए । लेखनकर्म भी अन्य आसक्ति रहित कर्मों के समान ही होना चाहिए. भगवान् कृष्ण ने गीता में ऐसे कर्मों को मात्र अंतःकरण की शुद्धि हेतु अनिवार्य बताया है । गीता में प्रत्येक उस कर्म को जो जिस व्यक्ति के लिए शास्त्रानुकूल है; स्वधर्म की संज्ञा दी गई है; और साहित्य के लिए समर्पण रचनाकार का स्वधर्म है. गीता में उल्लेख है-
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियेरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये । ।
अर्थात् कर्मयोगी ममत्व बुद्धि रहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करे ।
उपर्युक्त उपदेश में समस्त कर्मों को आसक्तिभाव से रहित होकर करने का निर्देश हैं । ठीक इसी प्रकार रचना कर्म को भी मात्र कर्मयोगी के समान ही होना चाहिए अथवा साधुभाव से । वस्तुतः प्राचीन विद्वान् इसी प्रकार से रचनाकर्म करते थे। वाल्मीकि, तुलसी, महाकवि कालिदास किसकी प्रशंसा के लिए रचनाकर्म में रमे थे? मीरा को किस प्रसिद्धि की भूख थी या फिर सूर को किस बात का प्रलोभन था ? वे प्रकाशन-अप्रकाशन, ख्याति, यशोगान, आर्थिक लाभ, सम्मान, पुरस्कार तथा समूहवाद आदि की प्रवृत्ति में संलिप्त नहीं थे । नि:संदेह ये सभी स्वान्तःसुखाय रचनाकर्म में निरत थे । रीतिकाल को यहाँ छोड़ देना चाहिए; कारण- चारण प्रवृत्ति कभी भी सात्त्विक नहीं हो सकती । ऐसा नहीं कि आधुनिक काल में इस प्रकार की साधना देखने को नहीं मिलती, स्वतन्त्रता की अलख जगाने वाले और निर्धनता को अपनी लेखनी द्वारा चित्रित करने वाले साहित्यकार भी स्वयं निर्धनता को जीते थे; किन्तु समय ने करवट बदली, अब लेखन को एक अच्छे कैरियर की तरह देखने वाले लेखकों तथा उनसे मुनाफ़ा कमाने वाले प्रकाशकों के लिए क्या स्वान्तः और क्या सुखाय? एक ही कविता को अलग-अलग मंचों पर सुनाकर रातों-रात प्रसिद्धि की भूख या चाटुकारिता से प्राप्त ख्याति क्या सही अर्थ में कवि अथवा रचनाकार का धर्म है?
अब मूल प्रवृत्ति की बात करेंगे; भारतीय वाङ्मय के अनुसार प्रत्येक मानव के व्यक्तित्व में तीन गुण होते हैं- सत्त्व, रजस एवं तमस । सत्त्व व्यक्तित्व में ज्ञान, प्रकाश एवं सकारात्मकता आदि का संवाहक है; रजस- क्रोध, लोभ, मोह तथा अतिक्रियाशीलता आदि का संवाहक है । तमस अज्ञान, अन्धकार एवं आलस्य आदि का संवाहक है। गुणों में एवं व्यक्ति के स्वभाव में चक्रक सम्बन्ध है; अर्थात व्यक्ति के व्यवहार से गुण एवं गुणों से व्यवहार का सीधा सम्बन्ध है । प्रवृत्ति के मूल में उपस्थित आसक्ति सभी बुराइयों का मूल है; यह तथ्य प्रकाशकों के सम्बन्ध में भी है; किसी भी पुस्तक को प्रकाशित करने से पूर्व उसे गुणात्मकता के मापदंडों पर पूर्ण होना चाहिए; तथी लेखन एवं प्रकाशन सार्थक है । यदि लेखक तथा प्रकाशक स्वयं ही दशा-दिशाविहीन होंगे, तो वह समाज को क्या दिशा देंगें? रातों रात ख्याति अथवा धन प्राप्ति रजस एवं तमस की अधिकता के कारण उपजते हैं; जबकि रचनाकार को चिंतनशील एवं ज्ञान से युक्त होना चाहिए । ये सत्त्वगुण से होते हैं; इसलिए एक रचनाकार को सर्वप्रथम सात्त्विक भाव से युक्त होना चाहिए; तभी उसका रचनाकर्म सार्थक है । सात्त्विक भाव के प्रस्फुटन हेतु आवश्यक है- सकारात्मक सोच एवं निर्लिप्त भाव; रचनाकार में यह अपेक्षित ही नहीं अनिवार्य है ।
यह तो साहित्यकार के धर्म की बात थी; मेरा निरंतर प्रयास रहा है कि इस धर्म का निर्वाह करूँ । पूर्व में प्रकाशित मेरे संग्रहों 'आज ये मन', 'मन के कागज़ पर' और 'घुँघरी' को आप सभी आत्मीय पाठकों का पाठकीय आशीर्वाद प्राप्त हुआ; मैं सौभाग्यशालिनी हूँ । इन सभी संग्रहों को अच्छी लोकप्रियता मिली तथा इनकी अधिकतर रचनाएँ कविताकोश http://kavitakosh.org, हिन्दी चेतना https://www.hindichetna.com, सहज साहित्य https://www.sahajsahity.com, नीलाम्बरा.com, https://www.rachanakar.org, http://amstelganga.org , http://www.udanti.com आदि पर सहस्रों पाठकों द्वारा पढ़ी तथा सराही जा रही हैं।
आपकी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए ऊर्जास्रोत हैं; एक बार पुनः आपके मध्य इस काव्य-संग्रह को लेकर उपस्थित हूँ; जिसका शीर्षक है- ‘मीलों चलना है’ । शीर्षक में प्रतिबिंबित है; वह प्रेरणा और जीवटता जो जीवन में निरंतर कर्मठता और संघर्षशीलता को ही जीवन का मुख्य आधार मानती है । इसी प्रेरणा और उत्साह के साथ हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आसक्ति रहित कर्म को प्रेरक मानकर निष्काम भाव से कर्म करते रहने की आवश्यकता है । अब इस संग्रह के प्रकृति की बात करूँगी । यह संग्रह मन के सहज भावों तथा प्रेम में मिलन-विछोह आदि को शब्दों में पिरोने के साथ ही वर्त्तमान समाज की विद्रूपताओं को भी चित्रित करने का प्रयास है । पिछले संग्रह ‘घुँघरी’ की विषयवस्तु पहाड़ के जनमानस और महिला विषयों पर केन्द्रित थी; आप सभी पाठकों ने अपना भरपूर प्रेम प्रदान किया । आप सबकी आत्मीयता मेरे सृजनकर्म हेतु ऊर्जास्रोत है । आपका स्नेह बना रहे और मेरा रचनाकर्म निरन्तर चलता रहे; यही कामना है ।…
मकर संक्रान्ति, 15 जनवरी, 2020