Last modified on 6 मई 2021, at 19:45

रोकती हैं टंगियाँ/ रामकिशोर दाहिया

डा० जगदीश व्योम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:45, 6 मई 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामकिशोर दाहिया }} {{KKCatNavgeet}} <poem> लीलन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लीलने पुरखे लगा
अजगर हुआ है
घर-बसेरा
गांँव भीतर का
निकलकर
खोजता भटका सवेरा.

छोड़ आँगन
गांँव-घर का
एक झंझावात शहरी
साथ ले
जीने लगा हूंँ
हाथ में अपने सहेजे
चीथड़ा
मिरजाइयों को
बैठकर सीने लगा हूंँ
सूत-सूजी में
विरासत
फिर फंँसाकर टांँक घेरा.

नापते कद
और भी घटने
लगे विस्तार घट के
और मैं
बढ़ता रहा हूंँ
रोकती हैं टंगियाँ
पर! बाद इसके
उन्नयन की सीढ़ियांँ
चढ़ता रहा हूंँ
जागता मन का
कलाविद
दूर करने को अंँधेरा.
            

-रामकिशोर दाहिया