Last modified on 18 मई 2021, at 20:44

उधर बुलंदी पे उड़ता हुआ धुआँ देखा / डी. एम. मिश्र

उधर बुलंदी पे उड़ता हुआ धुआं देखा
इधर ग़रीब का जलता हुआ मकां देखा

किसी अमीर ने दिल तोड़ दिया था मेरा
मुद्दतों मैंने उसी चोट का निशां देखा

वहम ये मिट गया मेरा कि सर पे छत ही नहीं
नज़र उठा के ज्यों ही मैंने आसमां देखा

बहुत तलाश किया हर जगह ढूंढ़ा उसको
मुझको ये याद नहीं कब उसे कहां देखा?

अजीब हादसे भी ज़िंदगी में होते हैं
अपने दुश्मन में मैंने अपना मेहरबां देखा

ऐसे हालात पे रोना भी खूब आया मुझे
जब फटेहाल कभी अपना गिरेबां देखा

हज़ार मुश्किलें हों फिर भी मुस्कराना है
हसीन फूल को कांटों के दरमियां देखा