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वाणी वंदना / संजीव 'शशि'

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माँ शारदे विनती करूँ,
इतना मुझे वरदान हो।
ऐसा समय आये नहीं,
मुझमें कभी अभिमान हो॥

आशीष दे माँ लेखनी,
से शब्द के मोती चुनूँ।
मन में बसा कर प्रीत को,
मैं प्रेम की कविता जनूँ।
हो तीर्थ मेरा प्रेम का,
होता जहाँ सम्मान हो।

शृंगार मर्यादित लिखूँ,
नव कल्पना, नव छंद दो।
ममता कभी, करुणा कभी,
नव चेतना के बंध दो।
दिन-रैन गीतों में जिऊँ,
इतनी मेरी पहचान हो।

अज्ञान का तम दूर हो,
माँ ज्ञान का दीपक जला।
तेरी शरण में आ गया,
अब और क्या माँगू भला।
ऐसा कभी संभव नहीं,
माँ पुत्र से अनजान हो।