नारी जीवन / संजीव 'शशि'

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दो कुल की मर्यादा ढोयी,
फिर भी रही अकेली।
नारी जीवन एक पहेली।।

जब माँ के अंतर आयी तो,
खतरा था अपनों से।
पल-पल उनकी आँखों पलते,
बेटे के सपनों से।
कहें अमानत दूजे घर की,
जिन बाँहों में खेली।

नारी अधिकारों की बातें,
लगतीं सारी फर्जी।
पैदा होने से मरने तक,
किसने पूछी मर्जी।
दूजे की मर्जी से उसके,
मेंहदी रची हथेली।

अनजाने का हाथ थामकर,
अनजाने घर जाये।
अनजाने रिश्तों को हँसकर,
जीवन भर अपनाये।
पल भर में बेटी से बनती,
दुल्हन नयी नवेली।
केवल घर बदले हैं उसके,
क्या बदला जीवन में।
इस घर भी रहती बंधन में,
उस घर भी बंधन में।

जीवन भर ममता बाँटी पर,
आँसू बने सहेली।

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