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दृढ़ता देख रहा हूँ / भाऊराव महंत

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मेरे कारण ही मैं घर को,
बँटता देख रहा हूँ।
इक-दूजे से हर सदस्य को,
कटता देख रहा हूँ।।

माँ कहती है मेरा बेटा,
तिय कहती पति मेरे।
एक उजाला हूँ मैं घर का,
मेरे बिना अँधेरे।
लेकिन कैसी विडंबना है,
माँ-पत्नी रूपी मैं-
दो पाटों के बीच स्वयं को,
पटता देख रहा हूँ।।

एक सहारा हूँ मैं घर का,
वित्त कमाने वाला।
सबकी फरमाइश मुझसे है,
छोटा-बड़ा-निराला।
सब को खुश रखने का चक्कर,
पड़ता इतना उल्टा-
प्रेम सभी में बढ़ना था पर,
घटता देख रहा हूँ।।

मैं तो जड़ हूँ सबको देना,
मुझको खाद व पानी।
किसी एक के लिए नहीं मैं,
कर सकता मनमानी।
अंग तना-शाखाएँ-पल्लव,
फूल और फल मेरे-
अतः वृक्ष के प्रति मैं खुद की,
दृढ़ता देख रहा हूँ।।