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कनुप्रिया / विमलेश शर्मा

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कनु सुनो!
तुमने मुझे बार-बार समझाया
कि प्रेम एक अंतहीन प्रतीक्षा है
भावों की साधना है
मौन अभिव्यक्ति है!
जिसमें सभी दिशाएँ घुल जाती हैं
और सीमाएँ लय हो जाती हैं!
तुम्हें मानते हुए, स्वीकारते हुए
खड़ी हूँ वक़्त की ड्योढ़ी पर
आज तक
कि तुम चाहोगे तो धरती घूम जाएगी
इच्छा होगी तुम्हारी
तो लौट आओगे इधर
जिधर में कनु-सी बावरी बनी
वन-वन घूमती रहती हूँ!

तुम्हारी ही प्रतीक्षा में
मैं बिना कुछ सोचे
आँसुओं को बूँद-बूँद सुनती हूँ
चुनती हूँ हर हरा चप्पा

और कालवधू की ही भाँति
सजकर, सवँरकर
सहेजती हूँ भीतरी आत्मज को
कि जैसे ही समाप्त हो तुम्हारी लीला

मैं तुम्हे बाँध लूँ, सहेज लूँ
बना दूँ रथी से अरथी

और लौटा लाऊँ
पांचजन्य से वंशी तक
द्वारिका से वृन्दावन तक
धर्मयुद्ध से रास तक
और बन जाऊँ फ़िर तुम्हारी कनुप्रिया!