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निःशेष / विमलेश शर्मा

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शून्य में हैं ध्वनियाँ
ग्रह-नक्षत्र अचेतन
स्वीकृति-अस्वीकृति में रत
और मौन घुला है अमौन में

सब उथला है
हर ओर अबोला है
एक कौतुक पसरा है
पर लय में फिर भी है प्रकृति नटी!
श्वेत मेघपुष्पों के रथ पर
एक दिन चढ़ा था!
शाम तक पहुँचकर
वही उजली भोर मुरझा गई है!

जो बचा है इधर
साँस-सा कुछ
वह अभी भर के लिए है
स्वर, छंद, लय
पल-प्रतिपल सब बीत जाएँगें
इस दिन की ही तरह!

सो जो बचा है
प्रेम-अप्रेम
आस्था-अनास्था
राग-विराग
बस! अभी, अभी के लिए ही है!