Last modified on 21 जून 2021, at 21:52

प्रभाती-वंदन / विमलेश शर्मा

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:52, 21 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमलेश शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=ऋण...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक भोर
जब ओस-बूँदे छिटक
रात अपना आँचल समेट रही थी
कुछ कलियाँ अलस कर उमगी थीं
और कुछ बिखरीं थी धरा पर निढ़ाल!

रात को लौटना था
और वह लौट गई
आख़िर यह घटी-चक्र का आवर्तन था!

तत्क्षण किसी प्रतिक्रिया की तरह
सूरज बादलों के घोड़े पर सवार होकर निकला था
पंछी हवाओं के साथ अठखेलियाँ कर रहे थे
और किसी पुरु की तरह
पाठ घुला था नम हवाओं में
कि
धरती से आसमान के छोर तक की
क्रमिक क्रियाएँ
नियमों में बँधी होती हैं!
ठीक तभी मेरे आँगन में
किसी जीवन-नियम की ही फलश्रुति में
गुलमोहर का पहला गुल भी खिला था
सुर्ख़ लाल
कोमल
नवजात!
इस नन्हें-से फूल को
आँख पहचानती है!