Last modified on 24 जून 2021, at 22:05

किसान / पंछी जालौनवी

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:05, 24 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंछी जालौनवी |अनुवादक= |संग्रह=दो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अपना बदन उधेड़ के
ख़ुद अपने हाथों से
ज़मीं के आँचल पे
हरयाली टांक देते हैं
रूखी सूखी खा के
पानी पी लेते हैं
अनाज का एक-एक दाना
बांट देते हैं
किसान
फिर कुछ ऐसे दब जाते हैं
अपनी ज़रूरतों के बोझ में
कि जिस्म की
बोसीदा दीवारों पे
ख़ुद बख़ुद उगने लगती हैं
उकताहटों की घांस फूस
वादों उम्मीदों
और तसल्लीयों की
अफीम का नशा
धीरे धीरे उतरने लगता है
ज़िन्दगी की कमर
झुक जाती है
आस टूट जाती है
जीने की आदत
छूट जाती है॥