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चाँद / हरजीत सिंह 'तुकतुक'

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एक जूं थी भोली भाली ।
जीवन था उसका ख़ुशहाली।
बालों के बाग़ान थे।
मन में कुछ अरमान थे।

एक दिन बोली,
मुझे जीवन का अर्थ पाना है।
भैया,
मुझे तो चाँद पे जाना है।

सबने कहा,
चाँद में है क्या ख़ास।
बाग़ान तो छोड़ो,
न ही है कोई घास।

वो बोली,
देखा नहीं,
जब चाँद चमकता है।
एक दम आलौकिक लगता है।

सबने समझाया,
ईंट इस जस्ट,रेफ़्लेक्शन आफ साइट।
चाँद में नहीं लगी है ट्यूब लाइट।
चाँद सिर्फ़ देखने में सुंदर नज़र आता है।
चाँद पे ज़ाया नहीं जाता है।

थक गये समझा के सारे गुणी।
मगर उसने किसी की भी न सुनी।
कूद गयी चाँद पे लगा के पूरा दम।
पर टिक नहीं पाए चाँद पर कदम।

अभी suburb के,
slum में रहती है।
किसी से भी,
सच नहीं कहती है।

चाँद की आस में।
जो है पास में।
उसे नहीं खोना।

क्योंकि,
हर चमकने वाली चीज़,
होती नहीं सोना।