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मौसम, जिनका जाना तय था / पराग पावन

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शरद की एक दुपहर
मुस्कुराती धूप की छाया में
मटर के जिन फूलों से
मैंने तुम्हारी अँजुरियों का वादा किया था
वे मेरा रास्ता रोकते हैं

एक दिन
कुएँ के पाट पर नहाते बखत
तुम्हारे कन्धे पर मसल दिया था पुदीना
वहीं पर ठहरा रह गया मेरा हरा
आज विदा चाहता है

ज़मीन के जिस टुकड़े पर खड़ी होकर
मेरे हक़ में तुम ललकारती रही दुनिया को
उसे पृथ्वी की राजधानी मानने की तमन्ना
अब शिथिल हो चुकी है

मेरे लिए
गाली, गोबर और कीचड़ में सनी बस्ती लाती बरसात के लिए तुमने कहा —
नहीं, देखो इस तरलता में मजूर के दिल जितना जीवन है !
तपिश के बुलावे पर बरखा का आना देखो !

…और फिर
पुरकशिश पुश्तैनी थकान के बावजूद
एक दिन मैं प्यार में जागा
जागता रहा…

मेरी बरसात को बरसात बनाने के लिए उच्चरित शुक्रिया
तुम्हारी भाषा में शरारत है
मेरी रात को रात बनाने के लिए दिया गया शुक्राना
मेरी भाषा में कुफ़्र होगा

जाओ प्रिय,
जलकुम्भी के नीले फूलों को
तुम्हारे दुपट्टे की ज़रूरत होगी
पके नरकट की चिकनाई
तुम्हारे रुख़सारों की आस में होगी
जुलाई में जुते खेतों की गमक
तुम्हे बेइन्तहा याद कर रही होगी
समेटे लिए जाओ अपनी हँसी
रिमझिम फुहारों के बीच
बादल चमकना भी तो चाहेंगे

जाओ प्रिय,

मैं तुम्हें मुक्त करता तो लोग तुम्हें छिनाल कहते
मैं ख़ुद को मुक्त करता तो लोग मुझे हरामी कहते
दोनों को बीते हुए से बाँधकर
मैंने प्यार को मुक्त कर दिया
…जाओ प्रिय

अब बीते हुए की गाँठ के अतिरिक्त
रतजगे का तजुर्बा तुम्हारा दिया सबक है
अब हाड़तोड़ थकान के बावजूद
हर तरह की रात में
हर तरह की नींद से
हिम्मत भर समझौता करूँगा
और ताज़िन्दगी इसे सबसे पहली और आख़िरी
ज़िम्मेदारी मानता रहूँगा

चली जाओ प्रिय !