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आत्मकथ्य / शिरीष कुमार मौर्य

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शिशिर की कठिनाइयों में
जन्मा मैं
सुना कि माँ के जीवन को ख़तरा था
उस रात
उन्हें एंबुलेंस में लिटा

पीछे अपनी लम्ब्रेटा पर चले थे पिता
सड़कों पर जगह-जगह कौड़ा तापते
लोगों के बीच से
ठिठुराती उस रात में
भय को पिछली सीट पर बिठाए
पसीने से भीगे
पिता जाते थे अस्पताल की ओर
आगे शिशिर की रात थी

लंबी
कहते हैं पिता
सब आशंकाओं के पार
कुछ देर बाद
शिशिर की उस रात उन्होंने
अपना एक अलग खिलता वसंत
देखा था

देखा था एनिस्थिया के असर से बाहर आता
उन्नीस बरस की माँ का मुस्कुराता चेहरा
हर शिशिर में अपने होने से जूझता
सोचता हूँ

मैं अब वृद्ध लेकिन और तेजस्वी हो चले
उस युगल का प्रेम हूँ
उम्मीद हूँ
स्वप्न हूँ
ख़ुशी हूँ

कैसी यह द्वाभा जीवन की
कि हर शिशिर में भरपूर खिलता
वसंत ही रहना है मुझे
और जो अपने भीतर का
रितुरैण है एक

टीसता
मस्तिष्क की सिकुड़ती धमनियों में
हृदय को
किसी भूचाल की तरह कँपाता
उसे गाना नहीं
चुपचाप सहना है मुझे