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बिताके दिन सफ़र में अपने घर की याद आती है / आकिब जावेद

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हमें भी डेहरी चूल्हा चौका दर की याद आती है।
बिताके दिन सफ़र में अपने घर की याद आती है।

जिधर भी देखता हूँ मैं उधर वह ही नज़र आये।
उसे यूँ देखते ही मोतबर की याद आती है।

नज़र से दूर है मेरे कभी जो साथ चलता था।
अभी भी मुझकों अपनी उस डगर की याद आती है।

सुना है यार मुझसे कुछ ख़फ़ा-सा हो गया है यूं।
बताऊँ कैसे मैं उस हमसफ़र की याद आती है।

दुआएँ साथ होती है ग़रीबो की मदद करके।
बिना माँगे मिली है जो उस दर की याद आती है।

अगरचे वह भी रख्खे ठोकरों में जब नियामत को।
सफ़ीरों को कहाँ अपने शहर की याद आती है।

उड़ा के ले गया है ख़्वाहिशों को बिन बातये कोई।
ज़रूरत में ही सबको अपने घर की याद आती है।