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कुटिलता / मनोज शर्मा

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एक बेल उगती है
और चौतरफा चपेट में ले आती है
आदि से है कुटिलता
अंनत तक रहेगी
इसके रहस्य
मिथक, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति
मथते आए हैं, ग्रसते आए हैं
यदि यह न होती
कैसे कहलाते चाणक्य
महान कौटिल्य
बचपन में पढ़े जो जासूसी नॉवेल
उनके मज़े में यही तो फ्रेम होती रही
कितना दिलकश कूकती है कोयल
और कौए के घोंसले में
अपने अंडे छोड़ आती है
कहा जाता है इसे
चालाकी की सहोदरा
किंतु कुटिलता तो स्वयंसिद्धा है
नियम बनाती है
और नहीं मानता जो
उसका नहाना खाना, रोना सोना, आना जाना
खिलखिलाना
धीमे धीमे नष्ट करती जाती है
यह वैज्ञानिकों तक को
नींद में दबोच सकती है
कि, धर्मस्थलों पर है इसका ही कब्ज़ा
भोजन को स्वाद समझाती है
ईमानदारी फाड़-फाड़ खाती है
अपनी व्यूह रचना में
यह निरंतर परिवर्तनशील है
जैसे एक दिन, मन की महान बात बता रही थी
फिर, असंख्य अचाही मौतों पर अपनी ही चुप्पी सहला रही थी
और अचानक एक दिन फिर तो
आँसू टपका रही थी
इसने ही रचे वर्ण
देश बनाए गुलाम
बच्चों का निवाला छीनती
अमीर को और अमीर बनाती है
नौकरी चाकरी दुकानदारी की तो औकात ही क्या
यह तो आंदोलनों को नज़रअंदाज़ कर जाती है
हिचकी दर हिचकी रूलाती है
गणित की अनसुलझी प्रमेय है
उस बुज़ुर्ग के पांव से उतार ली गयी चप्पल

जो भरी दोपहरी
ख़ुशहाली का सपना फहराने जा रहा था
कुटिलता
मोह का ख़ून चूसती चुड़ैल है
खाँटी बिगड़ैल है
पहुँच में नहीं आती है
फिर भी अक्सर, चीन्ही जाती है