पंच तत्व के परम तत्व पर, लाया मनु दुष्काल।
आकुल अचला में छा जाता, सूखे का भूचाल।।
मनुज हृदय में विचरण करती,
मृगतृष्णा की लार।
जलधर से उतरे धारों पर,
करता रहे प्रहार।
दिनकर से तापित वसुधा पर,
रिक्त वृक्ष की छाँव।
कंठ शुष्क हैं प्राण कोश के,
जल पोखर अरु गाँव।।
देवराज का आसन डोले, देह बने बेताल।
आकुल अचला में छा जाता, सूखे का भूचाल।।
तरंगिनी की चंचलता में,
छाया है अवसाद।
संदूषण ही बना धरा पर,
एक नया अपवाद।।
बढ़ते संख्या क्रम को मानव,
कब मानेगा भूल।
धरती के मानस को प्रतिपल,
चुभो रहा यह शूल।
भागीरथ की घोर तपस्या, क्षय करता घड़ियाल।
आकुल अचला में छा जाता, सूखे का भूचाल।।
वन्दनीय है प्रकृति हमारी,
दे अवसर सौगात।
जीवन चक्र चले धरणी पर,
तजो घात प्रतिघात।।
जल संचय कर विटप लगा तन,
थामो संख्या तार।
सोमदायिनी सुरसरिता ही,
करती है उद्धार।।
ब्रह्म कमंडल ब्रह्मदेव का, आशीषों का ताल।
आकुल अचला में छा जाता, सूखे का भूचाल।।