Last modified on 31 अगस्त 2021, at 23:30

जिजीविषा / रचना उनियाल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:30, 31 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रचना उनियाल |अनुवादक= |संग्रह=अभि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बाजीग़र बैठा जो ऊपर, क्या-क्या खेल रचाता है।
निर्धन की कुटिया में कैसे, भूख निवाला पाता है।।

आग रहे जलती चूल्हे की,
जिगर लगाया नट ताला।
बाँधा बिटिया को डंडे पर,
ठुड्डी करतब का आला।
चार कदम आगे को चलता,
चार कदम पीछे लाला।
सीधे डंडे पर फिर उसने,
सही संतुलन कर डाला।
बाज़ीगर अपनी बाजी से, डर को आँख दिखाता है।
निर्धन की कुटिया में कैसे, भूख निवाला पाता है।।

एक सुता मख़मल में सोए,
दूजी बालापन भूले।
रखती नाता सदा सम्पदा,
तंगी में दूजी झूले।
स्वर्ण अटारी में पल करके,
दुख दरिद्र किसने जाना,
उदर अग्नि जब करे लड़ाई,
यही अभाव का है आना।।
मन दोनों को एक सुहाता, देह भेद बतलाता है।
निर्धन की कुटिया में कैसे, भूख निवाला पाता है।।
जीवन से लड़ता बाज़ीगर,
गाँव-शहर का हर कोना।
बजा डुगडुगी दिखा तमाशा,
सजा प्राण का वह दोना।।
मालिक से है यही याचना,
इंसा को रोटी देना।
चमकाता है गुम्बद को तू,
नाव ग़रीबी की खेना।
प्रश्न सदा मन को उकसाता, किधर जन्म का खाता है।
निर्धन की कुटिया में कैसे, भूख निवाला पाता है।।