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महाप्रस्थान / जावेद आलम ख़ान

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हमारी जठराग्नि में भस्म हो गए जंगल
बेघर हुए असभ्य आदिवासी
हे सव्यसाची
तुम्हारे अग्नि बाणों ने जब पहली बार
खांडव वन को समिधा बनाकर
सभ्यता के यज्ञ में आहुति दी थी
अग्निदेव को घृत और यव के बदले
तमाम जंगली आदिम नाग जातियों के
रक्त और चर्बी का भोग चढ़ाया था
उस विनाश लीला को हमने सभ्यता कहा था

उस दिन से आज तक हम सभ्य होते आ रहे हैं
हमारी तृषा बुझाते-बुझाते सिकुड़ती जा रही नदियाँ
भरे दरबार चीर हरित होती द्रौपदी की तरह

रास्तों के लिए छाती पर डायनामाइट झेलते पर्वत
जगह जगह दरकने लगे हैं धैर्य खोकर
जैसे भीष्म के प्रहारों से उद्वेलित होकर
निशस्त्र प्रतिज्ञाधरी कृष्ण ने सुदर्शन उठा लिया हो

खनिजों की चाह में हमने खोखला किया ज़मीन को
अब वह दरक रही है जगह-जगह
मानो संसार की हर प्रताड़ित सीता को
लेना चाहती हो अपनी पनाह में

अमूल्य रत्नों के लालच में
हम रोज़ समुद्र मंथन कर रहे हैं
और इससे तंग आकर समुद्र उफन रहे हैं
इस निर्दय सभ्यता को डुबा देने के लिए

प्रकृति के कोप को देखकर भी
सभ्यता के काम में लगे हैं निर्भय
हम पर गर्व करो धनंजय
हम अभी और सभ्य होंगे
जब तक कर नहीं जाते महाप्रस्थान
सीधे पाताल में