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वो सारे स्वप्न / सुनील गंगोपाध्याय / सुलोचना

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कारागार के अन्दर उतर आई थी ज्योत्स्ना
बाहर थी हवा, विषम हवा
उस हवा में थी नश्वरता की गन्ध
फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाभी को,
"मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं ।"

मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है
घण्टा बजता है प्रहर का, सन्तरी भी क्लान्त होते हैं
सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्श बोध करती है ।
कण्डेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य,
"माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ?
आज चारों ओर देखो,
लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं,
मैं ज़िन्दा ही रहा माँ, अक्षय"

कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ,
घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया
पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदण्ड
अन्तिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने
पोस्टकार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को,
"अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक,
साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं,
आज मैं बहुत ज़्यादा नहीं लिखूँगा
सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुन्दर है।"

लोहे की छड़ पर रख हाथ,
वह देख रहे हैं अन्धकार की ओर
दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अन्धेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय
सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी,
"मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ?
सिर्फ़ एक ही चीज़,
मेरा सपना एक सुनहरा सपना है,
एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था।"

वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं
सुनाई पड़ता है साँसों का शब्द
और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता
अमरत्व के अन्य नाम होते हैं
कानू, सन्तोष, असीम लोग ...
जो जेल के निर्मम अन्धेरे में बैठे हुए
अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं ।