तब हम डिब्बों और कनस्तरों के बीच रह रहे थे
जब हम बज रहे थे । यूँ ही ।
अब शोर नहीं है ।
और हम दफ़न भी नहीं हैं धरती में ।
हम वज़नी चीज़ों की तरह रह रहे हैं ।
वज़न लिये छाती पर ।
न जाने स्मृतियों का, चिन्ताओं का, या उम्मीदों का ।
नीचे घास है पीली पड़ती हुई ।
वज़न को रोकती हुई अपने ऊपर, हरापन तजकर ।
बीज बचे हैं ।
वे बजते नहीं हैं । कहीं कोई शोर नहीं है ।
(मार्च, 2002)