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पालकी / मृदुला सिंह

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चिलकती धूप में
ग़ांव की कंटीली पगडंडियों पर
लंबे डग भरते नंगे पांव और
ललाती आंखों में उतरता अँधेरा
छिन भर को सोचता है कि
क्या रख दें पालकी?
पर लहू में मिला हुआ नमक
प्रतिबद्धता को थामे हुए है
पालकी वालों की ये सेवा नहीं है
पेट की जुगत है
भूख ने व्यवस्था से
यह समझौता किया है

काले काँधों पर उधड़ी हुई चमड़ी
निशान हैं इंसानी फर्क के
पैरों की सूजी शिरायें
अंतड़ियों में हो रहे युद्ध को
हौसला देती हैं
यह सब दिखता नहीं
पर्दे पड़ी आंखो को
बिडम्बना भयावह है
मानव मानव को ढो रहा
जीवित नहीं वे सब मरे हैं
जो मजलूमों के कांधे चढ़े है
सभ्यता के इस नये युग में
पहले कर्ज दिया जाता है
फिर दी जाती है माफी
किसान दिखने की होड़ लगी है
व्यंग्य से हंसते हैं खेत और दरातियाँ
पालकीवालों की अगुआई में
सहमा हुआ विकास चल रहा है
अब वे और मज़े में हैं
पैर उनके आसमान में हैं
बदला इधर भी है कुछ
कांधे के घाव अब गले पर आ गए हैं
अंधेरा तब काला था और
अब होकर आया है उजला
क्या इस उजले अंधेरे में
कोई देख सकेगा इन घावों की पीड़ा?