Last modified on 29 जनवरी 2022, at 15:46

कैथर कला की औरतें / गोरख पाण्डेय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:46, 29 जनवरी 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोरख पाण्डेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तीज-व्रत रखतीं, धान-पिसान करती थीं
ग़रीब की बीवी
गाँव भर की भाभी होती थीं
कैथरकला की औरतें
 
गाली-मार ख़ून पीकर सहती थीं
काला अच्छर
भैंस बराबर समझती थीं
लाल पगड़ी देखकर घर में
छिप जाती थीं
चूड़ियाँ पहनती थीं
ओठ सीकर रहती थीं
कैथरकला की औरतें
 
ज़ुल्म बढ़ रहा था
ग़रीब-गुरबा एकजुट हो रहे थे
बग़ावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धर-पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथरकला की औरतें

अरे, क्या हुआ? क्या हुआ ?
इतनी सीधी थीं गऊ जैसी
इस क़दर अबला थीं
कैसे बन्दूक़ें छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे ?
क्या से क्या हो गई
कैथरकला की औरतें ?
 
यह तो बग़ावत है
राम-राम, घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई ?
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के ख़िलाफ़ यह ज़ुर्रत ?
ख़ैर, यह जो अभी-अभी
कैथरकला में छोटा-सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमें
ग़रीब मर्दों के कन्धे से कन्धा
मिलाकर
लड़ी थीं कैथरकला की औरतें
 
इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हैं
इसे याद रखें
क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं
की जा सकेगी
और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और ख़ुशहाल

तब सम्मानित
किया जाएगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली क़तार में
होंगी
कैथर कला की औरतें