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उड़ान / पद्मजा शर्मा

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मेरे पंख कतर दिए गए थे
आँखों पर डाल दिए गए थे अज्ञान के परदे
कि देख न सकूं
यह सुंदर सृष्टि बुन न सकूं कोई हसीन ख़्वाब
उड़ न सकूं पंछी-सी निर्द्वंद्व उड़ान
और छू न सकूँ
असीम आसमान
पर अब जान गई हूँ
कि अनंत नीला विस्तार
मेरे इंतज़ार में है
बुला रहा है सदियों से
और मेरे परों में उड़ान अभी बाकी है
मैं उडूँगी
पर उड़ना कोई खेल नहीं
पंखों को खोल लूँ, तौल लूँ
आश्वस्त हो लूँ
कि मेरे पाँवों तले की ज़मीन मेरी ही है
उड़ने वाले को यह जान लेना चाहिए
कि आख़िर उतरना धरती पर ही होगा
इतनी तैयारी तो होनी ही चाहिए
एक नई उठान के लिए
भयहीन अनंत उड़ान के लिए।