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सुख दुःख / हर्षिता पंचारिया

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1.
सुख के हिस्से मुँह आया
और दुःख के हिस्से कान
सुख ने जैसे ही मुँह खोला !!!
कमबख़्त !!! दुख हाज़िर हो गया ।

2.
"सुख" बारात की तरह आया
पूरे गाँव को दिए गए न्यौते की तरह,
और "दुःख" शवयात्रा की तरह
जहाँ चार काँधे भी लोग बदलते रहे ।

आदमियों की गिनती उँगलियों पर की जा सकें,
इसलिए सुख हथेली की रेखाओं में ही विलीन हो गया ।

3.
"दुःख" बारिश है और "सुख" छाता ।
छाता,

खुलते खुलते भी भिगोता रहा
बंद होते होते भी भिगोता रहा

पर सबसे आश्चर्य जनक स्थिति ये रही कि,
जब तक खुला रहा
करीब आने वालों को चुभता रहा ।