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साइकिल / हर्षिता पंचारिया

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एक साइकिल!
जिसपर लग चुकी है ज़ंग
खड़ी है घर के एक कोने में
ढ़ेले भर की जगह घेरे
अपने सुखद दिनो को याद करते हुए
भरती है सिसकियाँ
उसे याद है तुम्हारी पहली सिसकी भी
जब लहूलुहान हुए थे तुम्हारे घुटने,
उसके बाद ही तुमने सीखा
ज़मीन पर रहते हुए हवा से बातें करना
हर मोड़ के बाद सही रास्ते पकड़ना।

मुझे लगता है,
दुनिया में जितने रास्ते है
उनके लिए बननी चाहिए उतनी ही साइकिलें भी,
ताकि कच्ची राहों से पक्की राहों तक
पहुँचने का साहस बना रहें।
साहस बना रहे उन लड़कियों का भी,
जिनके दुपट्टे फँस जाते है साइकिलों की चैन में

उन तमाम साइकिलों का
आभार मानना होगा,
कद ऊँचा रखने हेतु,
जिन्होंने कभी नहीं माँगा कोई ईधन
मांगा तो सिर्फ़ थोड़ा रख रखाव, थोड़ा-सा तेल,
ताकि तुम्हारी गति निर्बाध हो सके।

पर अफ़सोस!
फिर भी आज रखी हुई है कितनी ही साइकिलें,
उन मकड़ी के जालों के इर्द गिर्द
जहाँ कोई जाना भी पसंद नहीं करता,
इसलिए नहीं कि पुर्ज़े ख़राब हो गए है बल्कि इसलिए कि,
आधुनिक और सुंदर सामानो की इस चकाचौंध में
हम भूल चुके है,
बचपन की वह स्मृतियाँ
जहाँ हवा निकलने पर पंचर बनाया जाता था
ना कि टायर फेंक दिया जाता था
आज जबकि समय वापस लौट रहा है
तो हमें सहेजनी पड़ेंगी साइकिलें
स्वयं के क्रियाशील होने के लिए
स्वयं के गतिशील होने के लिए