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अनकही / हर्षिता पंचारिया

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अवसाद के लिए दुनिया में कितनी जगह थी
पर उसने चुनी मेरे भीतर की रिक्तता

मेरे भीतर के दृश्य को
देखने वाला कोई नहीं था
आख़िर नीले आसमान में स्याही के
निशान कौन देख सकता है?
आसमान ने भी नहीं गिनी गिरती हुई बूँदे
इसलिए मैंने भी
आँखों के लवण का भार नहीं तौला

हृदय के घाव बाहर से नहीं दिखते
दिखाती भी तो भला कैसे दिखाती
ये नख हृदय तक पहुँचते भी तो नहीं
आदमी के भीतर देखने के लिए और कितना भीतर उतरना है
उसका कोई सटीक मापन भी तो नहीं

अवसाद का कोई ठौर ठिकाना नहीं
जहाँ जगह मिली
दीमक की तरह ख़ोखला कर दिया
पर खोखलों में मात्र चिट्ठियाँ रखी जाती है
अपनी चिट्ठियाँ स्मृतियों में दर्ज करवाने के लिए
मैंने मेरी रिक्तता में भरे कुछ शब्द

अब मुझे तुमसे पूछना था
कि तुम क्या
भरोगे?