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बहुरूपिया / विंदा करंदीकर

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सीना चाहिए
फटे हुए जीवन को
खेतों में फैली हुई अनन्त
हरी घास की नोंकदार सुइयों से
मेरी दुकान है दरज़ी की ।

धोना चाहिए
सिलवट पड़े फटे वस्त्रों को
मिट्टी के ढेर और काटती हवाओं में
हँसते हुए पसीने से,
पीढ़ियों से मेरा धन्धा है धोबी का ।

उधेड़ना चाहिए
बचकाने पण्डितों का कानूनी कसीदा
और चढ़ाना चाहिए
न मिटने वाला नया रंग गहरा लाल,
जिसमें छिप जाएँ
ख़ूनी रक्त के गहरे दाग ।
मिट्टी के रंगों वाला मैं हूँ रँगरेज़ ।

सुलझाना चाहिए
क्रान्ति की कंघी से
बीमार ज़िन्दगी के उलझे हुए बाल,
और सजाना चाहिए
भोली जनता की शर्मीली दुल्हन को,
अनागत से गहरे प्रणय के लिए
मेरे ख़ून में जो पुरोहित है, वह हटता नहीं
ब्याह रचाने का शौक घटता नहीं ।