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शेष हूँ / विनोद शाही

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बुझ रहा हूँ
दीप को बुझना ही है
पृथ्वी के दिल में
खोज लेकिन देख लो
लौ हमारी ही वहाँ है
लावा बनी है
धड़कती है
संग उसके शेष हूँ मैं
शेष हूँ

सांस घुटती
मृत्युगन्धा वायु चलती
शव साधना पर कर रहा हूँ
प्राण को पकड़े हुए हूँ
बीज हूँ
भूमि अपनी में पड़ा हूँ
शेष हूँ मैं
शेष हूँ

अखरोट जैसी सख़्त कविता
हो गया हूँ
न रसीला और न मैं तिक्त हूँ
अपने हृदय के शब्द की
मस्तिष्क जैसी मैं गिरी हूँ
धड़कता हूँ समझता हूँ
समझता हूँ धड़कता हूँ
वागर्थ सा मैं मिट रहा हूँ
अर्थ का ज्यों वाक् हूँ
गूँज की अनुगूँज हूँ
शेष हूँ मैं
शेष हूँ