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आस्था - 10 / हरबिन्दर सिंह गिल

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मानव ने आज तक
शब्दों को
अहं के गहने के रूप में
सजाया और संवारा है
उन्हें कभी
आस्था के फूल समझ
मानवता को
अर्पण नहीं किया है।

शायद यहाँ पुजारी ही
स्वयं में अनभिज्ञ है
अपने स्वार्थ रूपी
प्रसाद को
बटोरने की कोशिश में
रात और दिन व्यस्त है
और भूल गया है
प्रसाद बटोरा नहीं जाता
बांटा जाता है।

इतिहास मानव की
इस भूल को
बहुत नजदीक से
निहार रहा है।
उसे न तो
पुजारी की फिकर है
न ही प्रसाद से
कुछ लेना देना है।
वह तो उसमें सीमित
मानवता रूपी
मूर्ति के बारे में
निरंतर चिंतित है।
मानव की प्रार्थना के
हर एक शब्द को
सुन और विचार रहा है।