Last modified on 28 अप्रैल 2022, at 00:10

आस्था - 13 / हरबिन्दर सिंह गिल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:10, 28 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आखिर
ऐसे कौन से शब्द हैं
अपना अर्थ खो रहे हैं
परंतु उन्हें फिर भी
बहुत सजाया और
सवारा जाता है।

आजकल की
कूटनीति की दुनियाँ में
शायद इसे
आधुनिकता का पहनावा कहते हैं
और संस्कारों की ओढ़नी
मानव
ओढ़ना भूल गया है
क्योंकि मौलिकता को
रूढ़ीवाद कहकर
ठुकरा दिया जाता है।
परंतु आधुनिक दुनियाँ में भी
मानव न जाने क्यों
भूलता सा जा रहा है
जानते हुए भी
न जाने क्यों
अनजान बन रहा है।
हीरा सदियों पहले भी
मिट्टी के गर्भ से
जन्म लेता था
और लेता रहेगा।

फर्क इतना ही है
थके हुए
मानव की भुजाओं
ने मशीनों का सहारा लिया है
पर अफसोस
कोहीनूर उसे
फिर भी न मिल सका।