Last modified on 30 अप्रैल 2022, at 23:53

आस्था - 25 / हरबिन्दर सिंह गिल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:53, 30 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यह इसलिये हो रहा है
मानव के मस्तिष्क में
चिंतन की जगह
फार्मूलों ने ले ली है
और कारखानों से
बनकर निकल रहे हैं
बरबादी के समीकरण
क्योंकि
मानवीय विचारों को
बाजार में
रद्दी के भाव भी
कोई
लेने को तैयार नहीं
जब तक कि
वो छप न जाए
और उसके बाद
उन्हें
चाय की दुकान पर
या पान की पुड़िया में
या फिर मयखाने के सामने
भजिये की प्लेट में
उपयोग करके
कूड़े-दान में
फेंक न दिया जाये।
इसके विपरीत
मातृभूमि के नाम
ऐसा कोई भी समीकरण
जो चारों तरफ
मचा दे, हाहाकार
काफी है
न सिर्फ स्वयं के लिये
अपितु
आने वाली पीढ़ियों के लिए भी।