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खत्ती / दिनेश कुमार शुक्ल

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जब चाहे तब
वह ठहरा देता है
किसी को भी
अप्रासंगिक निरर्थक अनुपयोगी
फिर भी एक खत्ती में
डाले रखता है
कि पता नहीं कब
जरूरत पड़ जाय किसकी

चूँकि इधर ज़रूरतें भी बढ़ी हैं सभी की
इसलिए संख्या भी
बहुत बढ़ गयी है खत्तियों की
कि पूरी बस्ती के नीचे खत्तियाँ ही खत्तियाँ

अभी उस दिन
वर्षों बाद जब
अचानक ही उन्हें फिर बना दिया गया
सभापति- पाया उन्होंने
कि मंच की साज-सज्जा
सब उन्हीं की पसन्द की
एक-एक तफ़सील
वही कुर्सी, वही मेज, वही गुलदान
मेजपोश और श्रोता भी
और श्रोताओं के बीच ‘वह’ खुद भी बैठा दिखा
अचरज
कि ‘वह’ का तो तब जन्म भी नहीं हुआ था
जब सभापति बने थे वे पिछली बार
अचरज
उनकी पसन्द-नापसन्द ‘वह’ कैसे जान गया

वे नहीं जानते थे
ठीक मंच के नीचे भी
एक खत्ती थी इस बार।