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दर्पण / अनिमा दास

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करती हूँ कई बातें तुमसे
कहती हूँ मन की भाषा
तुम पढ़ लेते हो अपने मन से
कितनी आशा और निराशा !

देख मेरे मुरझाए चेहरे को
अक्सर हँस देते हो तुम।
कहते तो कुछ भी नहीं
बस समझ लेते हो तुम।
मेरे अंतर्मन के प्रतिफलन को
सहेज लेते हो तुम ।

स्मृतियाँ अतीत की दोहराते हो जब
वर्तमान को सहलाते हो जब
चमक उठते हैं तब कई मोती
आँखों की कोरों में ...
बड़े ही कोमलता से निःशब्द तुम
निहारते हो जब ।

साथ छोड़ जग का मैं तुम्हारी हो जाती हूँ
बिखरी अलकों को सँवारने लगती हूँ
विषमय लगता है जीवन ,
देख कर स्वयं का प्रतिबिंब ....
अस्त-व्यस्त अंगों से
घृणित स्पर्श उतारती हूँ ..।

लिख जाते हो तुम गाथाएँ
छुपा लेते हो सारी व्यथाएँ
पोंछ कर मौन अश्रुओं को
भुला देते हो बीती कथाएँ ।
रचकर मैं आत्मीय आभा मुख पर
करती मेरा स्व तुम्हे अर्पण ..
प्रतिपल सँभालते गिरने से मुझे
तुम मेरे मन दर्पण .....।।