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शोकगीत / नेहा नरुका

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मैं उन बच्चियों को जानती हूँ
जिनकी माँएँ जब मायके गईं
तो वे भयभीत रहीं अपने पिताओं से भी

दिनभर बक-बक करने वाली ये बच्चियाँ
माँ के क़दम रेल या बस में पड़ते ही
परिपक्व औरत में बदल गईं
वे रसोईघर में आतीं
और चुपचाप अपने जूठे बर्तन माँजकर छत पर पढ़ने लगतीं
वे स्नानघर में नहातीं
तो दरवाज़े की कुण्डी अच्छे से ऊपर चढ़ातीं
और चुपचाप बस्ता लेकर स्कूल निकल जातीं

वे चाँद से न आने की प्राथनाएँ करतीं
वे पूरे वक़्त किसी सहेली की तरह सूरज का साथ चाहतीं
उन्हें तारों वाली बाल कविताएँ भद्दी लगतीं

उनकी रात यह सोचते हुए गुज़रती कि आख़िर पिता भी तो पुरुष हैं
पिता भी तो रखते हैं अपनी आध्यात्मिक क़िताबों के बीच
सेक्स कथाओं की रंगीन-सी क़िताब
जिसके कवर पर लगभग नंगी-सी एक औरत खड़ी है
वे अच्छी तरह जानती थीं वे बिलकुल इस औरत की तरह नहीँ
दिखतीं
मगर फिर भी वे उस कवर पर ख़ुद को खड़ा पातीं
और ख़ौफ़ से भर जातीं

इन बच्चियों के ‘बचपन’ मेरे भीतर दफ़्न हैं
मेरा शरीर अब शरीर नहीँ है, एक उदास क़ब्र है
उनमें से एक बच्ची ने (जो मुझे प्रेम करने का दावा करती थी) सालों पहले इस क़ब्र पर कुछ शोकगीत लिखे थे और एक सफ़ेद फूल रखा था
वह फूल तो सूख गया …
मगर वे गीत अब भी नहीँ मिटे …

इन बच्चियों की ‘जवानी’ को मारकर बहा दिया गया
उस नदी में जिसका पानी नीला नहीँ लाल है
मेरे घर के नल से यही पानी आता है, मैं यही पानी पीती हूँ
मैं नहाती हूँ इसी पानी से …
मुझे देखो ज़रा गौर से,
मैं आहिस्ता-आहिस्ता ख़ून जैसी दिखने लगी हूँ

इसलिए जब कोई अनजान औरत कहती है
कि एक ‘बड़े आदमी’ ने मुझे नोंचा-फाड़ा और लील कर उगल दिया
तो मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीँ होता
क्योंकि मैं जानती हूँ ‘पुरुष बनना’ इस सभ्यता की सबसे ख़तरनाक प्रकिया है

दुनिया के वे पिता जिनके वीर्य से बच्चियाँ बनीं
काश ख़ुद को ‘पुरुष बनने’ से बचा लेते !
तो ये बच्चियाँ कम से कम अपने आँगन में तो फुदक लेतीं
काश ! ये बच्चियाँ कुछ बरस ही चिड़िया बनकर जी लेतीं ।